Sunday 24 November 2013

मार्क्स, गाँधी और अम्बेदकर की क्षमता का महत्व – गिरिजेश



क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास का सवाल : 
प्रिय मित्र, महात्मा गाँधी का स्वयं को पीड़ा देकर आत्म-शुद्धि करने, बार-बार अनशन करने और शत्रु का हृदय-परिवर्तन करने का प्रयास करने का सिद्धान्त न तो उनके जीवन-काल में सफल हो सका और न ही अन्ना-आन्दोलन में अन्ना और उनके अनुयायियों द्वारा किये जाने वाले आमरण अनशन के रूप में राज-सत्ता के चरित्र पर कोई सकारात्मक प्रभाव डाल सका. गाँधी जी का भी उपनिवेशवादी सत्ता ने भरपूर सम्मान किया. परन्तु अन्ततोगत्वा हर बार लागू वही हुआ, जो अंग्रेज़ चाहते थे. वह कभी भी नहीं लागू हो सका, जो गाँधी जी अपनी विनम्रता और ईमानदारी के साथ चाहते रहे. अन्ना का भी देश की वर्तमान सत्ता ने ख़ूब सम्मान किया. मगर जब लागू करने का वक्त आया, तो वही लागू किया, जो अन्ना-आन्दोलन के हर तरह के हर बार के अनुरोध के विरुद्ध था और सत्ता और टीम-अन्ना के बीच के समझौते में नहीं था, बल्कि धूर्त सत्ताधारियों के निहित स्वार्थों के हित में था. 

स्पष्ट है कि गाँधीवाद के जनदिशा में किये जाने वाले तरह-तरह के प्रयोग आज़ादी की लड़ाई में भी और अन्ना-आन्दोलन में भी जन-जागरण के लिये तो उपयोगी हैं. वे विराट जन-आन्दोलन खड़ा करने में तो समर्थ हैं. परन्तु वे जन के हित में खड़ा हो चुके जनान्दोलन के परिणाम के तौर पर अन्तिम सकारात्मक और सफल निर्णय करने-कराने में हर-हमेशा विफल और असमर्थ रहे हैं. ऐसे में राष्ट्र-हित के प्रति प्रतिबद्ध युवाओं के मन में गाँधी और अन्ना दोनों के प्रति सम्मान तो भरपूर रहा है. किन्तु उनका गाँधी और अन्ना के पथ से मोह-भंग होना भी पूरी तरह से स्वाभाविक रहा. और वह मोह-भंग बार-बार हुआ भी. ख़ुद अरविन्द केजरीवाल को अन्ना का केवल जन-आन्दोलन का गाँधीवादी पथ छोड़ कर ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने और चुनाव लड़ने का निर्णय लेना पड़ा. और विवशता में स्वयं अन्ना को भी आज तक उनके विरुद्ध बार-बार अलग-अलग मुद्दों पर अपना वक्तव्य देते जाना पड़ रहा है. 

ऐसे में दिख रहा है कि वर्तमान जनविरोधी ‘वैश्विक गाँव’ में पूँजीवादी व्यवस्थाजनित हमारी सभी तरह की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-मानसिक समस्याओं का समाधान करने में केवल मार्क्स के वर्गीय सामाजिक विश्लेषण पर आधारित वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सिद्धान्त ही कारगर होने जा रहा है. क्योंकि हमारा समाज बना तो है परस्पर विरोधी हितों वाले विभिन्न वर्गों से ही. और वर्गीय समाज में हर वर्ग के सदस्य का अपने-अपने वर्गीय हित के अनुरूप ही चिन्तन और आचरण सम्भव है. और उसके अनुरूप ही उनके परस्पर स्वार्थों के टकराने पर होने वाले हर स्तर के संघर्ष में दोनों पक्षों द्वारा अपने कदम उठाने की अपेक्षा की जा सकती है. अभी तक का क्रन्तिकारी आन्दोलन मूलतः केवल सशस्त्र संग्राम का ही हिमायती रहा है. और कम से कम भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के पिछले चार दशकों की विफलता इस सार-संकलन के लिये पर्याप्त और साक्षी है कि केवल सशस्त्र संग्राम की कार्य-दिशा अभी तक सफल नहीं हो सकी है. और न ही निकट भविष्य में उसके सफल होने के कोई आसार ही दिख पा रहे हैं. क्योंकि वह अब तक भी आक्रामक नहीं, केवल आत्मरक्षात्मक युद्ध लड़ने के लिये बाध्य है. और महान माओ ने विश्व-क्रान्ति के योद्धाओं को सिखाया था कि केवल आक्रमण ही सबसे अच्छा सुरक्षात्मक कदम होता है. महान लेनिन ने क्रान्तिकारी आन्दोलन के उग्रवादी अतिवामपन्थी विचलन को “बचकाना मर्ज़” कहा था.

लेनिन ने इसके साथ ही पूँजीवादी संसद को “सूवर-बाड़ा” कहा था. क्रान्तिकारी आन्दोलन के चुनाववादी विचलन को उन्होंने दक्षिणपन्थी भटकाव बताया था. अरविन्द केजरीवाल जिस संसदीय सुधारवाद के पथ पर बढ़ने जा रहे हैं. उस पर चलने वाली इस देश की सी.पी.आई. और सी.पी.एम. जैसी संसदीय मार्क्सवादी पार्टियों के अनुभव हमें दशकों से साफ-साफ़ दिखा चुके हैं कि क्रान्ति का पथ छोड़ कर केवल चुनाव के चक्कर में लग जाने पर उनके भी नेताओं के साथ ही कार्यकर्ताओं के भी वैचारिक और सांगठनिक स्तर को अधोगति का शिकार होना पड़ा है. इस तरह पूँजीवादी जनतन्त्र में केवल संसद के गलियारों की परिक्रमा करने से भी बुनियादी सामाजिक परिवर्तन असम्भव है. क्योंकि लूट पर टिकी इस व्यवस्था में निहित स्वार्थों वाले वर्ग अपने पाले में आने वाले क्रान्तिकारी दलों को भी अपने जैसा ही बना डालते हैं. वे उनसे बार-बार तरह-तरह के समझौता और समर्पण करवाते रहते हैं. और वे लगातार ख़ुद भी इस भ्रम में रहते हैं और अपने ईमानदार कार्यकर्ताओं को भी इसी भ्रम में जिलाने का प्रयास करते रहते हैं कि वे जन के हित मंे सत्ता और व्यवस्था के सामने एक के बाद एक लगातार अपने ये समर्पणकारी कदम उठाते जा रहे हैं. ऐसे में संसदीय विचलन के रास्ते पर भी चल कर पूरी मेहनत और ईमानदारी से प्रयास करने से भी फैसलाकून क्रान्तिकारी समाधान की कल्पना भी आज तक हर तरह से केवल मृग-मरीचिका की मार्मिक त्रासदी ही सिद्ध हो चुकी है. जन-समस्याओं के समाधान की उससे भी तनिक भी उम्मीद पालना हमारा भोलापन ही कहा जायेगा.

इन दोनों विचारधाराओं के अलावा डॉ. अम्बेदकर का दलितवादी चिन्तन भी भारतीय समाज में सक्रिय एक महत्वपूर्ण धारा है, जिसने हमारे समाज के सबसे निचले और सबसे पिछड़े वर्गों के सबसे ग़रीब लोगों के स्वाभिमान के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. जब हमारे देश का कम्युनिस्ट आन्दोलन केवल चुनाव लड़ने और जीतने के दक्षिणपन्थी भटकाव के चक्कर में फँस कर अपनी सांगठनिक गतिविधियों को धीमा करने लगा, अपने अध्ययन-चक्रों को कम और ख़त्म करने लगा, तो वह अपने साथ जुड़े समाज के ग़रीब-गुरबा लोगों को वैचारिक स्तर पर बौद्धिक ख़ुराक देने में और आन्दोलनात्मक स्तर पर दलित बस्तियों में लोगों को जन-समस्याओं के समाधान के लिये सशक्त तरीके से जूझने के लिये सक्रिय बनाये रखने में पिछड़ने लगा. ऐसे में कम्युनिस्टों से धीरे-धीरे नाउम्मीद हो चुके उन सब लोगों को दलितवादी चिन्तन से भारी सहारा मिला. और फिर दलित बस्तियों से मजदूर-किसानों के लाल झण्डे उतरने लगे और उनकी जगह मायावती की बहुजन पार्टी के नीले झण्डों ने ले लिया. 

ख़ुद अम्बेदकर ने अपने जीवन में मूलतः केवल परम्परागत सामन्ती उत्पीड़न के विरुद्ध दलित स्वाभिमान को जगाने की कामना से अपने समूचे लेखन और सारे आन्दोलन - दोनों ही के स्तर पर पहल लिया था. उनका पूँजीवाद के वर्गीय शोषण का सक्रियता के साथ विरोध करने वाला रूप कभी भी उभर कर सामने नहीं आ सका. इसके विपरीत उन्होंने ‘पूना-पैक्ट’ में गाँधी के सामने आत्म-समर्पण किया और आज़ादी मिलने पर नेहरू के साथ सत्ता में भागीदारी किया. उन्होंने हमारे ‘धनतन्त्र का संविधान’ बनाने में अपनी सक्षम भूमिका का सचेत तौर पर निर्वाह किया. और इसका परिणाम हुआ कि उनका नाम लेकर मायावती जातिवाद की चुनावी शतरंज की बिसात पर सफल हो गयी और अन्ततोगत्वा विराट दलित वोट-बैंक के सहारे अपनी सरकार बनाने तक जा पहुँची और ‘ग़रीब की अमीर बेटी’ बन सकी. मगर ग़रीब आदमी की ग़रीबी की विभीषिका अभी भी वैसी की वैसी ही न केवल बनी हुई है, बल्कि और भी बढ़ती चली जा रही है. वह तो अम्बेदकर के भी रास्ते पर चलने से भी आज तक रंचमात्र भी दूर नहीं हो सकी. हाँ, पूँजी के शातिर खेल के चलते और भी अधिक सूक्ष्म और त्रासद होती चली जा रही है. 

इसके प्रभाव का विस्तार हुआ नवदलितवाद में. नवदलितवादी विचारकों ने श्रम और पूँजी के मूलभूत अन्तर्विरोध के बजाय ब्राह्मणवाद और दलितवाद के बीच के अन्तर्विरोध को भारतीय समाज का सबसे महत्वपूर्ण अन्तर्विरोध बताया. उन्होंने दलितों की समस्याओं के समाधान के लिये उनको वर्तमान वैश्विक सत्य की विभीषिका का साक्षात्कार कराने और उनको साम्राज्यवादी-पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध क्रान्तिकारी जन-संघर्षों के लिये तैयार करने की जगह की जगह ढह रही सामन्तवादी परम्पराओं के उत्पीड़न के विरुद्ध ही सचेत करते जाने का काम अभी भी अपना प्रमुख कार्य-भार बना रखा है. वे वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के घेरे के अन्दर ही सत्ता-प्रतिष्ठान में अपने लिये थोडा-सा और बेहतर स्थान बना लेने के लिये स्वयं भी प्रयासरत रहे हैं और इतने भर के लिये ही अपने अनुगामियों को भी प्रेरित करते रहते हैं. हाँ, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी तीख़ी नफ़रत के साथ ही प्रकारान्तर से वे क्रान्तिकारी विचारधारा पर भी पूरी धार के साथ हमलावर हैं. दलित कार्यकर्ताओं की एक कतार ने मार्क्स और अम्बेदकर के बीच से रास्ता निकालने के प्रयास में ‘जय भीम कामरेड’ का नारा दिया है. समन्वय के इस प्रयास को क्रान्तिकारी आन्दोलन में भी पर्याप्त सम्मान प्राप्त है और ग़रीब दलितों के बीच भी उनका अपना व्यापक प्रभाव है.

भारतीय समाज में मूलभूत परिवर्तन की कामना से समाधानकारी प्रयास में सक्रिय इन तीनों धाराओं के इस विश्लेषण का सार-संकलन करने पर यह पूरी तौर से स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन की नेतृत्वकारिणी टोली को मार्क्स की वर्गीय विश्लेषण की पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा गाँधी की जन-मन को छू सकने और विराट जन-उभार खड़ा कर सकने की क्षमता के साथ ही अम्बेदकर की ‘दलित जन के उत्थान की कामना’ को भी अपना हथियार बनाना होगा. तभी इस देश में जन-क्रान्ति की सफलता का सपना साकार हो सकेगा. न केवल भारतीय समाज के अन्दर परिवर्तन के लिये इन तीनों में से किसी को भी छोड़ कर किया जाने वाला कोई भी प्रयास विफल ही होता रहेगा, बल्कि इन तीनों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का कोई भी प्रयास क्रान्तिकारी जन-दिशा में आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों के लिये आत्मघाती होगा. जनपक्षधर शक्तियों की व्यापकतम एकजुटता के लिये सकारात्मक प्रयास करने वाले सभी साथियों की भी यह ही सबसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है. 

"शक्ति के विद्युत्-कण जो व्यस्त, 
विकल बिखरे हैं हो निरुपाय;
समन्वय उनका करे समस्त, 
विजयिनी मानवता हो जाये|"
इन्कलाब ज़िन्दाबाद !

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