Tuesday 12 November 2013

नेतृत्व का दायित्व और संघर्ष की विविधता का सवाल - गिरिजेश


प्रिय मित्र, परिवर्तनकामी चेतना के वाहकों की किसी भी छोटी या बड़ी टोली के नेतृत्वकारी व्यक्ति के संघर्ष की जटिलता के अनेक पक्ष होते ही हैं. उसको हर क़दम पर अपने निकटस्थ साथियों के साथ वैचारिक द्वंद्व में जूझते रहना होता है. इस द्वंद्व में लगातार उभरते रहने वाले उनके नये-नये तर्कों के टकराने पर अपनी सोच को सही साबित करने की चुनौती उसके सामने बार-बार आती रहती है क्योंकि सतत जारी जीवन और जगत के परिवर्तन की विविधता के चलते नये-नये तथ्यों का सतत उद्घाटन होता रहता है और नेतृत्व को इन नूतन तथ्यों के भी आलोक में पुराने तथ्यों के आधार पर गढ़े गये अपने सूत्रों की सत्यता और तथ्यपरकता को पुष्ट करते रहना होता है. 

उसके साथ मिल कर उसके अभियान का आरम्भ करने वाले महत्वपूर्ण साथियों में से जहाँ कुछ तो उसके साथ आगे बढ़ते हैं, कुछ यथास्थिति की जड़ता के शिकार हो जाते है, वहीं कुछ दूसरे अपने व्यक्तित्व की सीमाओं के चलते, अपनी व्यक्तिगत या सामाजिक महत्वाकांक्षाओं के चलते, अपनी व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्याओं के चलते या पथ की विकटता को समझ-बूझ कर पीछे भी हटते रहते हैं. आगे बढ़ने वाले साथियों का मार्गदर्शन करना और पीछे हटने वाले साथियों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास नेतृत्वकारी व्यक्ति का दोहरा दायित्व होता है. 

इस सब के बीच उसे पीछे छूटने वाले मित्रों के बिछड़ने की मार्मिक यन्त्रणा सहन करनी होती है और इतना ही नहीं, उनमें से कुछ मुखर मित्रों के मारक कटाक्षों का वार भी मुस्कुरा कर झेलना पड़ता है. साथ ही अलग-अलग अवस्थितियों पर खड़े होकर अपने अभियान की आलोचना करने वाले दूसरे लोगों का प्रतिवाद भी उसे करते ही रहना होता है. 

उसे लगातार तरह-तरह की क्षमता वाले और भी नये-नये साथियों की तलाश करते रहना होता है. ऐसे लगभग सभी नये साथी अभियान के आभा-मण्डल की दीप्ति से प्रभावित होने पर ही सम्पर्क में आ पाते हैं. उसे इन नये साथियों के साथ मैत्री भाव का विकास करने के मकसद से पहले तो अन्तरंग भावनात्मक सम्बन्ध बनाना होता है. उनके साथ परस्पर मजबूत भावनात्मक सम्बन्ध की आधार-शिला के अटल रूप से स्थापित हो जाने के पश्चात ही उस भावनात्मक सम्बन्ध को वैचारिक धरातल तक उन्नत किया जा सकता है. 

वैचारिक चेतना का सतत उत्कर्ष करते रहने के लिये सभी नये और पुराने साथियों के बीच बार-बार विभिन्न विषयों पर गम्भीर चर्चा-परिचर्चा के विस्तृत आयाम खोलते रहना होता है क्योंकि उनके ऊपर समाज में प्रचलित विविध परम्परागत विचारों का सशक्त असर पहले से मौज़ूद रहता है. यह काम सभी साथियों की मदद से कविताओं-गीतों, नाटकों-फिल्मों, लेखों-विश्लेषणों, सूचनाओं-समाचारों और अध्ययन-चक्रों की निरन्तरता बनाये रख कर और तरह-तरह की पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रेरक और वैचारिक सरल, सुबोध और शास्त्रीय पुस्तकों को पढ़ने के लिये प्रेरित कर के एवं उनकी स्वयं की अभिव्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को और मुखरित करने का प्रयास करने पर ही मुमकिन हो पाता है.

विनम्रता सामाजिक कार्यकर्ताओं का मूलभूत गुण होती है और दम्भ उनके विकास का सबसे बड़ा अवरोध. यह जनविरोधी व्यवस्था हर व्यक्ति के सामने हमेशा पहिचान का संकट पैदा करती रहती है. और अपनी पहिचान बनाने और उसे बचाये रखने के लिये हर व्यक्ति को हरदम ललचाती रहती है. जनपक्षधर चेतना के विस्तार के लिये थोडा-सा भी काम कर ले जाने में सफल होते ही किसी भी व्यक्ति का दम्भ उसे दबोच लेता है और फिर उसके तब तक के सभी सकारात्मक कामों पर ग्रहण लग जाता है. ऐसे में सतर्कतापूर्वक सभी कार्यकर्ताओं के मन में सतत सेवा-भाव को बनाये रखना नेतृत्व का सबसे ज़रूरी दायित्व है. इसमें चूक होते ही टोली के सदस्यों के मन में व्यक्तिवाद को पनपने से नहीं रोका जा सकता. और जैसे ही एक बार टोली के सदस्यों के बीच व्यक्तिवाद ने अपनी जड़ें टोली में जमायीं, तो उसे व्यर्थ के विवादों में फँस जाने से कोई नहीं रोक सकता. बार-बार लगातार और गम्भीर प्रयास करके व्यक्ति को समूह के अधीन बनाये रखने से ही व्यक्तिवादी अहम् से सफलतापूर्वक निबटा जा सकता है. फिर भी इसमें बार-बार मुँह की खानी पड़ती है और इससे होने वाली क्षति को भी झेलना ही पड़ता है.

उसे जहाँ एक ओर अपने और अपनी टोली के इर्द-गिर्द बीच-बीच में नकारात्मक ऊर्जा बिखेरने वाले लोगों की कुटिल टिप्पणियों से भी दो-दो हाथ करना होता है, वहीं दूसरी ओर समाज में से सकारात्मक ऊर्जा देने वाले अन्य समर्थ लोगों को लगातार तलाशते भी रहना होता है. साथ ही चुप लगा कर तमाशा देख रहे लोगों की भीड़ में से आगे बढ़े हुए तत्वों को अपने साथ गोलबन्द करने के लिये बार-बार प्रचारात्मक अभियान आयोजित करना भी उसका एक ज़रूरी कार्य-दायित्व होता है. 

परन्तु संघर्ष के सभी दूसरे रूपों में से आर्थिक मोर्चे का संघर्ष नेतृत्व के लिये सबसे विकट और दुरूह होता है. अपने अभियान के विविध पक्षों को पूरी आन-बान-शान के साथ चलाते रहने के लिये लगातार न्यूनतम आवश्यक अर्थव्यवस्था जुटाने के लिये प्रयत्न करते रहना भी उसके लिये अपरिहार्य दायित्व बना रहता है. उसके सामने जितने तरह के कार्य-दायित्व होते हैं, उनकी अपेक्षा उसकी टोली की अर्थ-व्यवस्था हमेशा ही कमतर और डगमग रहती है. ऐसे में हरदम उसे आर्थिक किल्लत के चलते पैदा होने वाली अस्थिरता की सम्भावना के भय का धैर्य से मुकाबला करना होता है. इस मामले में "मेहनत और किफ़ायत से अपने देश का निर्माण करो" का महान माओ का कथन उसके लिये मशाल की तरह मार्गदर्शक और मददगार होता है. उसे फिजूलखर्ची पर कठोर अंकुश लगाने के लिये भी सतर्क रहना होता है. और सही जगह पर सही मात्रा में खर्च करने के लिये भी मन बनाकर तैयार रहना होता है. नये-नये आर्थिक संसाधन जुटाते रहना उसके लिये सबसे टेढ़ी खीर होती है. 

और इस सबके बीच दूसरों का मनोबल बनाये रखने और बढ़ाते रहने की अनवरत जारी अपनी कोशिश के साथ ही उसे अपनी ख़ुद की हिम्मत को बनाये रखने के लिये लड़ना होता है. उसे लगातार अपनी और अपने साथियों की समय-सीमा, अपनी ख़ुद की और अपनी टोली की क्षमता की सीमा, उपलब्ध संसाधनों की सीमा और समाज के बौद्धिक स्तर की सीमा के चलते उभर आने वाली और अपने चारों ओर बार-बार काले बादलों के घटाटोप की तरह छा जाने वाली भीषण हताशा के अन्धकार से टकराते रहना होता है. उसे सफलता और विफलता की समान सम्भावनाओं के बीच के द्वंद्व की अपनी मानसिक बेचैनी से हरदम जूझते रहना होता है. उसे हर कदम पर ख़ुद अपने को अपनी ख़ुद की नज़रों में भी सही ठहराने के लिये आत्मसंघर्ष की तपिश झेलते रहना होता है. 

इस तरह परिवर्तनकामी चेतना के प्रत्येक वाहक के सामने रचना और संघर्ष का दोहरा दायित्व होता है. इसके किसी भी पक्ष की अवहेलना करना उसके लिये असम्भव होता है. क्योंकि कोई भी पक्ष कमज़ोर पड़ने पर वह आत्मघाती दुर्गति में फँस जा सकता है. और तब उसे उबारने वाला तो कोई नहीं होता. हाँ, प्रशंसा करने वाले, उपहास करने वाले और सान्त्वना देने वाले ज़रूर होते हैं - कभी दूर-दराज़, तो कभी आस-पास. 

मुझे आपकी कूबत पर पूरा भरोसा है. मेरी अपनी ढेरों सीमाएँ रही हैं. 
उम्मीद करता हूँ कि आप मेरा और अपना - दोनों का ही मनोबल बनाये रखेंगे. 
आज बस इतना ही.

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

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