Sunday 15 September 2013

हिन्दू-स्थान की ओर दूसरा कदम - आशुतोष कुमार


मुजफ्फरनगर हिन्दोस्तान को हिंदू-स्थान ( हिन्दू राष्ट्र ) में बदलने की ऐतिहासिक मुहिम का दूसरा मुकाम है . पहला मुकाम था - अयोध्या (1992).



अयोध्या में संविधान को ध्वस्त किया गया था, मुजफ्फरनगर में संस्कार को .

अयोध्या ने आज़ादी की लड़ाई की विरासत से निकले धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक आश्वासन को खत्म किया . उसने अल्पसंख्यकों के इस भरोसे को खत्म किया था कि भारतीय राज्य-संस्थाएं भारतीय लोकतंत्र को 'बहुसंख्यकवाद की तानाशाही ' में बदल जाने से बचा लेंगी .

इस विश्वासघात के वे सारे राजनीतिक-सामाजिक नतीजे निकले , जिनकी कल्पना अयोध्या के योजनाकारों ने की होगी .

नरेंद्र मोदी इसी अयोध्या की देन हैं , जो पहले ही प्रधानमंत्री - कम से कम मध्यवर्ग के सपनों के - बन चुके हैं ! वे भावी हिन्दू-स्थान के सब से बड़े भावी सम्राट हैं . वे किसी हद तक ठीक कहते हैं कि प्रधानमंत्री बनना उनका सपना नहीं है . उनका सब से बड़ा सपना है - हिन्दू राष्ट्र या हिन्दू -स्थान .आज़ादी की लड़ाई के सभी मूल्यों और निशानों से मुक्त भारत . वह बन जाए , तो उसका शासक कौन बनेगा , यह खास मायने इसलिए भी नहीं रखता कि जगजाहिर है .

जिस भरोसे पर आज़ाद हिन्दोस्तान का लोकतंत्र कायम था , उसे तोड़ कर हिन्दू-स्थान की मुहिम ने अपना पहला पड़ाव पार किया . लेकिन हिन्दोस्तान की बुनियाद संविधान और भारतीय लोकतंत्र से अधिक गहरी थी . वह टिकी हुई थी हज़ारों वर्षों की उस हिन्दुस्तानी तहजीब - भारतीय संस्कृति - पर , जो अलगाव पर नहीं , लगाव पर कायम थी .

हिन्दुस्तानी गाँव लगाव की हिन्दुस्तानी तहजीब के सब से मज़बूत किले थे . किसान उस तहजीब के सब से बहादुर पहरेदार थे . हिन्दू-स्थान के निर्माण के लिए हिन्दुस्तान के इस असली किले पर कब्ज़ा करना जरूरी था . यह काम बाकी था .

मुजफ्फरनगर ने यह काम शुरू कर दिया . हम तब भी मुंह ताकते रहे थे , अब भी मुंह ताक रहे हैं .

क्योंकि हम संघ-परिवार की सांस्कृतिक राजनीति को न ठीक से समझ पाते हैं , न उस से निपटने का हमने कोई तरीका खोजा है . क्योंकि यह सांस्कृतिक राजनीति अदृश्य रह कर काम करती है . उसके नतीजे , कैंसर की तरह , केवल अंतिम अवस्था में उजागर होते हैं , जब उसका असल में कुछ ख़ास नहीं किया जा सकता .

अयोध्या-अभियान के पीछे योजनाबद्ध तरीके से धीमे-धीमे रचा और प्रचारित किया गया एक 'काल्पनिक इतिहास' था .

मुजफ्फरनगर के पीछे योजनाबद्ध तरीके से धीमे-धीमे रचा और प्रचारित किया गया एक एक 'काल्पनिक समाजशास्त्र ' है . लव जिहाद .

अयोध्या के बाद के दौर में इस ख्याल को पहलेपहल दक्षिण भारत से फैलाना शुरू किया गया. धीमे धीमे. इसकी कमान सम्हाली सनातन संस्था और उसके मंच हिन्दू जनजागृति समिति ने . केरल और कर्नाटक समेत समूचे दक्षिण भारत में लव-जिहाद का हल्ला मचाया जाता रहा . यह हल्ला इतना भरोसेमंद होता चला गया कि मार्क्सवादी मुख्यमंत्री अच्युतानंदन तक को इसके वजूद की आशंका सताने लगी . धीमे धीमे .

केरल और कर्नाटक की सरकारों ने बाकायदा विस्तृत जांचें करवाईं .इन जांचों से ऐसी किसी भी घटना , प्रवृत्ति या आन्दोलन का कुछ पता नहीं चला. लेकिन प्रचार चलता रहा . देश के अलावा कुछ विदेशी खबरों को भी इस मुहिम में लपेट कर इस 'काल्पनिक समाज शास्त्र' को एक विश्वव्यापी रूप दे दिया गया . धीमे धीमे .

समूचे पश्चिमी उत्तरप्रदेश में पिछले कुछ महीनों से जो आग सुलग रही है , जिसकी परिणति मुजफ्फरनगर के रूप में सामने है , वह इस काल्पनिक समाजशास्त्र का सीधा नतीजा है . पूरे इलाके में लगातार हो रहे महापंचायतों/ खापपंचायतों में एक ही नारा गूंजता है - बेटी बचाओ , बहू बचाओ . ( किस से ? लव जिहाद से !)

इस काल्पनिक समाजशास्त्र के कारण यह माहौल बन पाया है कि गाँवोंकस्बों- गलीकूचों की प्रेम कहानियां , छेड़छाड और यौनअपराध कभी भी भीषणतम दंगों की शक्ल ले सकते हैं .

यानी जिन प्रेम-कहानियों की संभावना (मात्र) हिन्दुस्तानी समाज को बचाए और बनाए हुए थीं , उन्ही की 'आशंका' हिन्दू-स्थान के निर्माण की मजबूत नीव बन रही है. यही है संस्कृति की भयावह राजनीति .

अभी तक तो हम कभी गुमसुम कभी बेचैन , कभी स्तब्ध कभी चीखते चिल्लाते , कभी सन्न कभी बहसन्न, तमाशा ही देख रहे हैं .

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