Saturday 12 October 2013

समाज में सक्रिय विभिन्न धाराओं पर एक विहंगावलोकन - गिरिजेश


प्रिय मित्र, हमारे समाज में विभिन्न वर्ग हैं. उन वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये विभिन्न धरातलों पर विभिन्न शक्तियाँ सक्रिय हैं. ऐसा ही एक क्षेत्र है संस्कृति का. सांस्कृतिक मंच पर भी वैचारिक द्वंद्व सतत जारी रहता है. आइए, इन सभी धाराओं की पड़ताल करने का प्रयास करें और देखें कि इनके सहारे कैसे इस जन-विरोधी पूँजीवादी समाज-व्यवस्था के शोषक-शासक वर्ग जन-सामान्य को अलग-अलग टुकड़ों में तोड़ने में, उनके बीच परम्परा से चलती आ रही नफ़रत की खाई को और गहरा करने में और उनको आपस में ही एक दूसरे के साथ लड़ाने में सफल हैं. और इसीलिये उनका लुटेरा राज अबाध रूप से चलता जा रहा है.

इनमें एक ओर सबसे ताकतवर धारा के रूप में खड़ा ब्राह्मणवाद है, जो अन्ध हिन्दूवादी राजनीति का भगवा झंडा लिये अतीत के गुणगान में मगन है. उसकी आँखों पर अन्ध आस्था की पट्टी बंधी हुई है. किसी का भी किसी भी तरह का विरोध उसे सह्य नहीं है. उसके पास कोई तर्क नहीं है. विज्ञानं के वर्तमान युग में हज़ारों वर्ष पहले कल्पना के सहारे रचे गये उसके अधिकतर शास्त्र अपनी उपयोगिता खो चुके हैं. शास्त्रों के अक्षम सिद्ध होने की दशा में शस्त्रों का ही सहारा बचता है. अफ़वाह फैलाने और झूठ बोलने में उनसे अधिक दक्ष कोई नहीं है. इसके साथ ही दंगा करने में उनको विशेष विशेषज्ञता प्राप्त है. और उनके शस्त्रागार में सबसे सशक्त शस्त्र है गालियों का अबाध प्रवाह.

दूसरी ओर कट्टर मुसलमानों की कतार खड़ी है. वे केवल कुरआन और शरीयत को ही एकमात्र सत्य मानने को बज़िद हैं. उनका झंडा हरा है और उनका नारा जेहाद है. वे पूरी धरती पर इस्लामिक राज्य बनाने के लिये मरना-मारना चाहते हैं. वे भी अपनी अन्धी आस्था की जड़ता के शिकार हैं. उनको भी कोई तर्क सहन नहीं होता. वे भी अपना विरोध करने वालों के लिये खूब गाली बकते हैं. बेगुनाहों का खून बहा कर उनके अन्दर डर पैदा करने के लिये दंगा और आतंकवादी हमला उनका भी प्रिय खेल है.

कट्टर मुस्लिम धारा कट्टर हिन्दू धारा को और कट्टर हिन्दू धारा कट्टर मुस्लिम धारा को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती है और आपस में एक दूसरे का क़त्ल-ए-आम करने के लिये बार-बार दंगों की साज़िश करती रहती है. दंगों का लाभ सीधे वोट-बैंक की राजनीति करने वाले संसदीय राजनीति के सभी दलों के घुटे हुए मक्कार खिलाड़ियों को मिलता है. इसी से वे भी दोनों तरह के दंगाइयों को हरदम शह देते रहते हैं. वे उनको हर तरह से पालते-पोसते रहते हैं.

तीसरी धारा जातिवाद में जीने वालों की है. ये अपनी जाति विशेष की पहिचान को बनाये रखने और जातीय एकता को मजबूत करने के लिये सक्रिय रहते हैं और जातीय लाभ के मुद्दों के सहारे केवल अपनी जाति के ही लोगों को गोलबन्द करने का प्रयास करते रहते हैं. इनमें ब्राह्मण महासभा से लेकर यादव महासभा तक के रंग बिखरे हैं. वोट-बैंक की राजनीति के लिये जातिवाद भी एक महत्वपूर्ण हथियार है. वे इस हथियार का भी अत्यन्त दक्षता के साथ चुनावी समर जीतने के लिये प्रयोग करते हैं. इस हथियार की मार के सामने अच्छे-खासे विद्वान भी आत्मसमर्पण कर देते हैं और इसकी मार के शिकार हो जाते हैं.

जातिवाद की सबसे महत्वपूर्ण धारा है - नव दलितवाद. इस समय नीले झण्डे वाली इस नव दलितवाद की धारा का उभार जारी है. इसके प्रवर्तक और पुरोधा मुख्य रूप से जे.एन.यू. में रहते हैं और अमेरिकी फण्डिंग के सहारे सोचते-लिखते-बोलते-करते हैं. इनका प्रयास है कि कई दशककों पूर्व तक बची हुई सामन्तवादी समाज-व्यवस्था की सोच की हज़ारों वर्षों पुरानी परम्परा के चलते पीढ़ियों से चलते चले आ रहे दलित बनाम सवर्ण के अंतर्विरोध को तेज़ करके श्रम और पूँजी के अंतर्विरोध को छिपाया जाये और समाज के व्यापक हिस्से में इस भ्रम को फैलाया जाये और वैचारिक धुन्ध की स्थिति बनाये रखा जाये कि आज भी इस देश पर पूँजीपति नहीं, ब्राह्मण राज कर रहे हैं. ये अपने आक्रामक पैंतरों में ऐसा दिखावा करते हैं कि इनके हमले का निशाना मुख्य तौर पर हिन्दूवादी हैं. मगर ये मूलतः क्रान्तिकारी धारा और वैज्ञानिक चिन्तन पर निशाना साधते हैं. क्योंकि वैचारिक स्तर पर दिवालिया ब्राह्मणवादियों की तुलना में इनके वैचारिक प्रचार के रास्ते का सबसे सशक्त अवरोध क्रान्तिकारी सोच ही है.

सुधारवाद के सहारे 'चीथड़े पर मखमल का पैबन्द' लगा कर व्यवस्था के द्वारा पैदा की जाने वाली भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई, लम्पटई की गन्दगी को ढकने-छिपाने के प्रयास में लगे हुए जयगुरुदेव और आचार्य श्री राम शर्मा के दौर के बाद आज रामदेव से लेकर अन्ना-अरविन्द केजरीवाल तक के प्रशंसककों और अनुगामियों के साथ ही तमाम सामाजिक संगठनों में सक्रिय बुद्धिजीवियों की लम्बी कतार है. इनका मानना है कि इस पार्टी की जगह उस पार्टी का राज आ जाने से सारी समस्या दूर हो जायेगी. ये पूरी निष्ठा और ईमानदारी से मानते हैं कि व्यवस्था तो सही है, केवल कुछ लोग गलत हैं और अगर उन गलत लोगों को सज़ा दे दी जाये, तो सब कुछ सुधर जायेगा. मगर ये मासूम हैं क्योंकि ये इतना सा सच भी नहीं जानते कि व्यक्ति वैसा ही आचरण करता है, जैसा उसका चिन्तन होता है और उसका चिन्तन वैसा ही हो सकता है, जैसी समाज की व्यवस्था होती है. 

नारीवाद की चर्चा के बिना यह लेख अधूरा रह जायेगा. नारीवादियों का मानना है कि नारी-पुरुष विवाद के हर मामले में हर पुरुष हर बार केवल गलत है और पूरित तरह से नारी-विरोधी है. और हर नारी हर बार पूरी तरह से सही है. इनकी समझ है कि पुरुष-प्रधान समाज-व्यवस्था में हर नारी अवश्यमेव उत्पीड़ित ही है और हर पुरुष अनिवार्यतः उत्पीड़क. इनके संघर्षों और इनकी रचनाओं की धार केवल पुरुषों के विरुद्ध है, व्यवस्था के विरुद्ध नहीं. नारी के उत्पीड़न के लिये ये व्यवस्था को नहीं केवल पुरुषों की मानसिकता को ज़िम्मेदार मानती हैं. इनको नारी-उत्पीड़न की घटनाओं के बाहरी लक्षण तो दिखाई देते हैं, मगर असली बीमारी इनकी पकड़ में नहीं आ पाती. शोषक व्यवस्था से सबकी मुक्ति और नारी-पुरुष समानता के लिये क्रान्तिकारी प्रयास की जगह ये अपनी तीखी प्रतिक्रिया में केवल पुरुष दम्भ के विरुद्ध उग्र प्रतिवाद करती रहती हैं.

इन सभी व्यवस्था-पोषक धाराओं के अतिरिक्त व्यवस्था विरोधी धाराओं में एक समाजवादी धारा रही है, जो दशकों पहले खूब सक्रिय और सशक्त हुआ करती थी. और अब अपनी वैचारिक कमज़ोरी के चलते टूट-फूट का शिकार हो चुकी है. इस धारा के समर्थ बुद्धिजीवी लोगों को अभी भी इक्का-दुक्का संघर्षों में सक्रिय और नेतृत्वकारी भूमिका में देखा जा रहा है. इनको समाजवाद और पूँजीवाद दोनों के ही अच्छे गुण पसन्द आते हैं और ये दोनों के बीच का रास्ता खोजने का प्रयास करते रहे हैं. आचार्य नरेन्द्रदेव से लेकर लोहिया तक और जय प्रकाश नारायण से लेकर राज नारायण तक इसके पुरोधा रहे हैं. इस धारा ने वर्तमान संसदीय राजनीति को अनेक निपुण नेतृत्व प्रदान तो किया, मगर अपने अस्तित्व को सम्भाल नहीं सकी.

व्यवस्था का विरोध करने में सबसे सशक्त धारा कम्युनिस्टों की रही है. इनका चिन्तन तो वैज्ञानिक है. परन्तु इनका आचरण अवैज्ञानिक रह गया है. अपना वैचारिक स्तर विकसित न कर सकने के चलते इस धारा में बार-बार विचलन हुआ है और विगत कई दशकों में इसके क्रान्तिकारी अभियानों के विस्तार की जगह केवल संसदवादी दक्षिणपन्थी संशोधनवाद या वामपन्थी बचकानेपन का ही विकास हुआ है. 

इस धारा के तीन मुख्य खण्ड हैं. एक तरफ़ संसदीय पथ के सहारे समाजवाद लाने वाले सी.पी.आई., सी.पी.एम्., सी.पी.आई.(एम.एल. लिबरेशन) जैसे दलों के लोग हैं, तो दूसरी ओर केवल बन्दूक की बोली बोलने वाले अतिवाम के चरमपन्थी उग्रवाद के बचकाने मर्ज़ के शिकार माओवादी पार्टी के क्रांतिकारी. दोनों की अवस्थितियों ने उनको रक्षात्मक पैंतरे के साथ व्यवस्था से लड़ने को बाध्य कर दिया है. दोनों ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और अभी तक किसी उल्लेखनीय सफलता के मुकाम तक नहीं पहुँच सके.

तीसरी धारा उन कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की है, जो जन-दिशा में प्रयासरत हैं. ये जन-जागरण, जन-चेतना, जन-संगठन, जन-आन्दोलन, जन-क्रांति की सोच रखते हैं. मगर इनमें आपस में दशकों से चला आ रहा वैचारिक मतभेद अब तक चरम पर पहुँच चुका है और अब अपनी जीवन्तता और उपयोगिता खो चुका है. ये दशकों तक एक दूसरे के साथ बहस करके थक चुके हैं. इनमें से कोई भी अपनी अवस्थिति से सुई बराबर भी हटने को तैयार नहीं है. इनके बड़बोले नेतृत्वकारी साथी अपने को ही भारतीय क्रान्ति का एकमात्र केन्द्र मान कर बैठे हैं. वे अपने को अनेक में से केवल एक मानने की क्रान्तिकारी विनम्रता की विरासत को पूरी तरह खो चुके हैं और आत्मग्रस्त हो कर दम्भ के शिकार हो चुके हैं.

देश भर में अगणित खण्डों में बिखरे हुए ये क्रान्तिकारी परस्पर एक साथ खड़े होने के लिये अभी तक भी मन बना कर तैयार नहीं हो सके हैं. इनकी जड़ता ने इनमें से अनेक का बेतहाशा पतन भी किया है. परन्तु इन सभी कमियों के बावज़ूद अभी भी केवल ये ही हैं, जिनसे थोड़ी-बहुत उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में या तो ये क्रान्तिकारी चेतना के विस्तार में अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करेंगे या इनके नेतृत्वकारी साथियों को उनकी महन्थई की अकड़ के साथ इतिहास के कूड़ेदान में फेंक कर युवा क्रान्तिकारी आगे आयेंगे और परस्पर मतभेदों को दरकिनार करके आपस में एक दूसरे के साथ एकजुट होकर जन-संघर्षों को नये आयाम देंगे. 'आल इण्डिया को-ओर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ कम्युनिस्ट रिवोलुशनरीज़' के अगले संस्करण की रचना करेंगे और इसके बाद भारतीय क्रान्ति का नया केन्द्र - एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी का गठन कर सकेंगे.

इस सन्दर्भ में यह विचारणीय है कि आज जो युवा तेईस साल की उम्र का है, उसका जन्म उन्नीस सौ नब्बे के दशक में हुआ है. तब जब कि वैश्विक गाँव की डंकल की अवधारणा ने हमारी सामाजिक संरचना में अपना हस्तक्षेप आरम्भ कर दिया था. हमारी इस पीढी को अपनी पिछली पीढी के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह के अनुभवों से वंचित हो कर जंगल के बेतरतीब पौधों की तरह उगना पड़ रहा है. इनको वैज्ञानिक दृष्टि और सटीक दिशा देने का दायित्व जिनके कन्धों पर है, उनके सामने इतिहास की सबसे विकट चुनौती और कार्यभार है कि वे अपने इर्द-गिर्द के युवाओं के बीच अध्ययन-चक्रों की श्रृंखला खड़ी करें. ताकि समवेत स्वर में युवा शक्ति एकजुट होकर युग-परिवर्तन के लिये अगले महा अभियान पर निकल पड़े.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

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