Monday, 12 May 2014

चुनाव 2014 का सच - Bhuvan Joshi


वर्तमान चुनावों में यह बात साफ़ हो गयी कि विभिन्न राजनितिक दलों के पीछॆ कम्पनिओ के पैसे (काले) का इस्तेमाल जम के हुआ यानि राजनितिक दल कम्पनिओ के दलालों के रुप में कम करते हे. ठीक इसी कारण कोई भी दल भ्रष्टाचार या विकास के कॉर्पोरेट मॉडल के मुद्दे पर ज़्यादा नही बोला. क्योकि भ्रष्टाचार कॉर्पोरेट मॉडल कि जड़ हे ओर कॉर्पोरेट विकास का मतलब जनता कि लूट हे. इसीलिये धर्मोन्माद, जातिवाद और निजी हमलों पर ज़्यादा जोर दिया गया हे. परंतु प्रश्न उठता हे कि यदि कॉर्पोरेट दलाल ही सत्ता पर बैठेंगे तो चुनावों कि क्या जरुरूत हे?

इस बात का उत्तर यह हे कि जनता को इस भ्रम में रखना जरूरी हे कि यह उनकी चुनी हुई सरकार हे. इन चुनावों को लोकतन्त्र का उत्सव बताया गया जिसका असली रुप सारी जनता देख् चुकी हे. इसलिए लगातार लगभग एक साल तक कॉर्पोरेट मीडिया से लेकर अन्य सभी माध्यमों का उपयोग इस बात के लिए गया कि इन राजनितिक दलों को अलग-अलग पदविया देकर उन्हें लोकतन्त्र के झंडाबरदार के रुप में दिखाया गया और जनता को बार-बार याद दिलाया गाया कि उनका मतदान जरूरी हे, श्री आदवानी ने तो यहा तक कह दिया कि मतदान अनिवार्य कर देना चाहिए और जो वोट ना दे उसके वोट देने का अधिकार छीन लेना चाहिये. 

यानी जो भी हो जनता को डराकर-धमकाकर, बहलकर-फुसलाकर कॉर्पोरेट दलालों को चुनने के लिए बाध्य करना चाहिये क्योंकि यदि यह दिखावे के लोकतन्त्र का लबादा उतर गया तो जनता को ठगा नही जा सकता हे.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह हे कि 90 के दशक से अल्पमत या गठबंधन सरकारे ही सत्ता में रही हे. इस बार भी यही होगा. आख़िर ऐसा क्यो हो रहा हे कि आज कोई भी दल सही मायने में राष्ट्रीय दल नही रह गया हे और अकेले दम पर सरकार नही बना सकता हे? यानि कोई भी कॉर्पोरेट एजेंट पार्टी अकेले दम पर सरकार नही बना सकती? 

इसका कारण हे कि भारत के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न पूँजीपतियों/कॉर्पोरेट ने प्राकृतिक सन्साधनो और बाज़ार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया हे लेकिन प्रतिद्वंद्वी पूँजीपति/कॉर्पोरेट से अपने कब्जे के संसाधनों कि रक्षा तथा अपने कब्जे के इलाकों में बढ़ोतरी के लिए ये कॉर्पोरेट आपस में संघर्ष करते हे जिसके लिए इन्होंने अपने स्व्यं के या कुछ अन्य को कॉर्पोरेट के साथ मिलकर अपने अलग-अलग राजनितिक दल बना लिए हे और इन कॉर्पोरेट में हुए समझौते के अनुसार इनके पालतू राजनितिक दल आपस में गठजोड़ कर सरकार बना लेते हे और समझौता टूटने पर अलग हो जाते हे. 

यही नही ये कॉर्पोरेट अपने हित साधने के लिए आतंकवादियों को तक पैदा करते हे, उल्फा का टाटा और खालिशतानी आतंकवादियों का पेप्सी कोला द्वारा पैदा किया जाना इसके उदाहरण हे. इस प्रकार सभी तरीकों जैसे राजनितिक दलों, धनबल, आतंकी गतिविधियाँ आदि, का प्रयोग ये पूँजीपति/ कॉर्पोरेट अपने प्राकृतिक संसाधनों तथा बाज़ार पर अपना नियंत्रण रखने तथा उसको बढ़ाने के लिए करते हे. ये चुनाव भी इनके इसी तरीके का इस्तमाल करना हे. 

चुनाव परिणाम आने के बाद इन पूँजीपतियों/कॉर्पोरेट के समझौते के हिसाब से ही सरकार बनेगी और इनके द्वारा चुनाव खर्च में लगाया गया काला धन जनता से सूद समेत वसूला जायेगा और सरकारी चुनाव खर्च करो के जनता से वसूला जायेगा.

Thursday, 1 May 2014

क्रान्तिकारी एकजुटता ज़िन्दाबाद !



क्रान्तिकारी एकजुटता ज़िन्दाबाद !
मई-दिवस के अवसर पर विशेष अनुरोध :

प्रिय मित्र, मेहनतकशों की एकता के आह्वान को लागू करने के लिये अनेक प्रयास जारी हैं.
इनमें से ही एक "PRO PEOPLE SOLIDARITY FORUM AGAINST EXPLOITATION, OPPRESSION AND COMMUNAL HATRED" के गठन का प्रयास रहा है.
मैं एक बार फिर से आपसे इस प्रयास की कल्पना को मूर्तमान करने के लिये अपनी पहल करने का अनुरोध कर रहा हूँ.
मई-दिवस के अवसर पर यह सन्देश आपकी सलाह जानने के मकसद से भेज रहा हूँ.
आपने प्रो-पीपल सॉलिडेरिटी फोरम (अगेन्स्ट एक्स्प्लॉयटेशन, ऑप्रेसन ऐन्ड कम्यूनल हेट्रेड) के गठन के प्रयास में अपनी भागीदारी की सहमति दी है.
मैं इसके लिये आपके प्रति आभार व्यक्त कर रहा हूँ.
यह प्रयास अभी तक अपनी पहली बैठक तक भी नहीं पहुँच सका.
यह प्रयास गत लगभग दो वर्षों से अधिक से अब तक लम्बित रहा है.
इस प्रयास के लिये ली गयी पहली पहल से अभी तक का समय केवल पहली बैठक की प्रतीक्षा करने में नष्ट हुआ है.
हमारी एकजुटता की दृष्टि से यह समय अतिशय महत्वपूर्ण रहा है.
आने वाले समय में यह आदमखोर व्यवस्था और भी नंगा फासिस्ट रूप लेने जा रही है.
हम सब को इस परिस्थिति में निकट भविष्य में और भी भीषण समस्याओं से दो-दो हाथ करना ही पड़ेगा.
इस विलम्ब के पीछे कतिपय तकनीकी दिक्कतें रही हैं.
पहले तो इसके ब्लॉग का नाम http://ppsfin.blogspot.in/ ही गूगल की नाम-नीति के अनुरूप नहीं रखा जा सका था.
दूसरे इस ब्लॉग के पासवर्ड को जिन साथियों के बीच वितरित किया गया था, उनमें से कुछ ही लोगों ने उस पर लिखने में रुचि ली.
ब्लॉग के ई-मेल ppsfindia@gmail.com के सहारे लिखने की अपेक्षा जिन साथियों से की गयी थी, उनमें से भी इक्का-दुक्का लोगों ने ही उस तक अपना मेल भेजा.
तीसरे इसके नाम को सुधारने और नया नाम चुनने का काम भी अभी तक नहीं किया जा सका.
चौथे कुछ मित्रों ने घोषित तौर पर अथवा सन्देश के माध्यम से अपनी और आगे हिस्सेदारी जारी रखने से इन्कार कर दिया.
पाँचवे एक ज़िम्मेदार और नेतृत्वकारी साथी के सामने एक के बाद एक आने वाली व्यक्तिगत समस्याओं में उनके उलझे होने के चलते बैठक की योजना अभी तक टलती गयी.
मेरी इस बार की 22-23 अप्रैल की दो दिनों की दिल्ली-यात्रा का उद्देश्य आमने-सामने बैठ कर इस बैठक की योजना को अन्तिम रूप देना भी था.
इस मुलाकात में इस प्रयोग को आगे जारी रखने के मूल प्रश्न पर ही एक वरिष्ठ मित्र का नकारात्मक मत सामने आया.
उनका सुझाव था कि ऐसा ही एक फोरम “Peoples Alliance for Democracy and Secularism (PADS)” को कॉमरेड राव Battini Sreenivasa Rao गठित कर रहे हैं.
कॉमरेड राव Battini Rao का फेसबुक लिंक यह है :https://www.facebook.com/battini.rao
उनके फ़ोरम का लिंक यह है : http://padsindia.blogspot.in/
उसी में इस योजना को समाहित कर दिया जाये.

हम सबके वरिष्ठ कॉमरेड Mohan Shrotriya sir 
से मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये मेरी फोन से बात हुई.
उन्होंने आप सब से आपकी सलाह जानने के लिये सन्देश भेजने की सलाह दी.
उनका ख़ुद का मत है –

“हिन्दी पट्टी में इस काम की व्यवस्थित शुरुआत और फैलाव की ज़रूरत के मद्देनज़र, बेहतर हो कि हिन्दी के वामपन्थी लेखक इसके केंद्र में रहें.
एक दो_दिन का कार्यक्रम दिल्ली में रखा जाये.
आपसी सहयोग से उसके आयोजन का खर्च निकाल लिया जाये.
दिल्ली के स्थानीय मित्र ही आयोजन की ज़िम्मेदारी को संभाल सकते हैं.
और मित्रों की राय आने दीजिए.
उसके बाद एक ठोस योजना प्रस्तावित करके, ‪#‎सहमतों‬ को आमंत्रित किया जाये.”

उनका मत आने के बाद ही मैं आप तक यह सन्देश भेज रहा हूँ.
मैं इस विलम्ब के लिये पूरे तौर पर अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार कर रहा हूँ.
इसके लिये मैं ग्लानि महसूस कर रहा हूँ, खेद व्यक्त कर रहा हूँ और स्पष्ट शब्दों में आत्मालोचना कर रहा हूँ.
कृपया मेरा मार्गदर्शन करें कि इस परिस्थिति में क्या निर्णय लिया जाये.
आपके सन्देश की प्रतीक्षा में
आपका अपना गिरिजेश

सत्ता द्वारा फैलाये जाने वाले युद्धोन्माद के प्रतिरोध की अपील - Bhuvan Joshi


7 अप्रैल 2014 को भाजपा का घोषणापत्र जारी करते समय टाइम्स नौउ के पत्रकार के स्वदेशी के प्रश्न पर श्री मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि "स्वदेशी" का मतलब बैलगाड़ियों के युग में लौटना नही हे बल्कि इसका मतलब "राष्ट्रीय गर्व", "National pride" हे. इसके बाद बाबा रामदेव ने मीडिया के एक साक्षात्कार में कहा कि वो अफगानिस्तान से "जावा", "सुमात्रा" तक एक अखंड भारत बनाना चाहते हे. यह बात जग जाहिर हे कि बाबा रामदेव मोदी का प्रचार कर रहे हे. इसके बाद श्री मोदी का दावूद इब्राहिम तथा हिमांचल प्रदेश में कैप्टन बत्रा का नाम लेकर प्रचार करना तथा लगभग सभी पार्टियों द्वारा अंध-राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद भड़काया गया. अभी कॉर्पोरेट मीडिया भी अंध-राष्ट्रवाद को भड़काने में लगा हे. भारत कि खुफिया अजेंसिया भी भारत सरकार के विदेशों में कूटनीतिक और सामरिक अभियानों कि चर्चा कर रहे हे. ये सब बातें निश्चित रुप से इस बात कि ओर इशारा करती हे कि आनेवाले समय में भारत सरकार विदेशों में कूटनीतिक और/या सैनिक हस्तक्षेप को बढ़ायेगी. 

हालाँकि 1947 में सत्ता हस्तातरन के समय से ही भारत सरकार को यह अधिकार मिल गया कि वो नेपाल, भूटान, सिक्किम (जिसे बाद में भारत में सम्मिलित कर लिया गया), मालदीव, मौरिसश इत्यादि देशों में कूटनीतिक/ सैनिक हस्तक्षेप का अधिकार था. लेकिन वर्तमान में एशिया के विश्व पूँजी का केन्द्र बनने से इस क्षेत्र में वैश्विक पूँजी का निवेश हुआ और उत्पादन क्षमता स्थापित हुई. वर्तमान में विश्व पूँजीवाद, जिसका प्रतिनिधत्व वैश्विक कम्पनिआ करती हे, संकट से गुजर रहा हे. इस संकट का निपटारा केवल बाज़ार बढ़ाकर हो सकता हे लेकिन समूची दुनिया पहले ही इस बाज़ार के दायरे में आ चुकी हे. 

अब केवल इसका केवल दोबारा बँटवारा हो सकता हे जिसके लिए ये वैश्विक कम्पनिआ एक दूसरे का बाज़ार छीनने की कोशिश में लग जाती हे और इसके लिए ये अपने राजनितिक विभागों यानि सरकारों का उपयोग करती हे. चीन तथा भारत के बड़े देश होने के कारण तथा इनकी सैन्य क्षमता अधिक होने के कारण इन सरकारों का उपयोग वैश्विक कम्पनिओ के ये गुट एसिया के स्तर पर तो अवश्य ही करेंगे. इस प्रकार भारत सरकार के विदेशों में चलाये जानेवाले कूटनीतिक/ सैन्य अभियानों में बढ़ोतरी होने कि प्रबल संभावना हो गयी हे.

भारत कि आम जनता के लिए इसके दोहरे मायने हे. एक सरकार द्वारा वसूले गए करो का बोझ उसे सहना होगा और विदेशों में चलनेवाले सैन्य अभियानों के लिए अपने सगे-संबंधी फौजियों की बलि इन वैश्विक कम्पनिओ के लिए बाज़ार हथियाने के लिए देनी होगी, दूसरे, अन्य देशों की जनता का इन वैश्विक कम्पनिओ के मुनाफे के लिए खून बहाना होगा. 

भारत कि जनता को यह कदम उठाना ही पड़ेगा कि वैश्विक कम्पनिओ के हित में चलाये जां रहे इन युद्धो का विरोध करे अन्यथा उसके पास इन युद्दो में अपनी कमायी और अपने भाई खोने के सिवा कुछ नही मिलेगा. साथ ही भारत की जनता को स्वयम को वैश्विक कम्पनिओ द्वारा विश्व स्तर चलये जानेवाले इस खून-खराबे में जबर्दस्ती शामिल कराये जाने के अपराध से अपने को बचाने का प्रतिरोध करना होगा.

निम्न पोस्ट पर लेखक की 'पक्ष-विपक्ष की नूरा कुश्ती' के बारे में यह कमेन्ट भी महत्वपूर्ण है.
https://www.facebook.com/girijeshkmr/posts/10202104318477286?comment_id=10202109155758215&offset=0&total_comments=8&ref=notif&notif_t=share_comment

"अब तक लगभग सभी राजनिटिक दलों के घोशनापत्र आ चुके हे. आौर जो आनेवाले हे वो भी इसी तर्ज पर होंगे. इन सभी घोशनापत्रों में इसी बात कि पुष्टि की गयी हे कि अगली सरकार वैश्विक कम्पनिओ की वैश्विक संस्थाओं द्वारा तय मुद्दों पर ही कम करेगी. हमने 08.03.2014 की पोस्ट में लिखा था:- 
“Whoever comes to power, it has to follow the general agenda of next Govt. which has been fixed by IMF, UNCTAD, WTO etc. :- 
1) expenditure on infrastructure to be increased to let the foreign & native corporate earn more profits, 
2) low taxation on corporate. This simply means lowering expenditure for public welfare scheme & more tax on people to let the corporate be benefited. 
3) to fill the greed of corporate supplying them cheap labour by skill development, 
4) providing money collected from public like EPF, CPF, PPF etc called Sovereign Wealth Funds (SWF), to the corporate to earn profit from public money, 
5) continuation of privatization, liberalization & globalization, general agreement on trade & tariffs, general agreement on trade in services, trade related intellectual property rights, trade related investment measures which were being implemented at dictate of IMF, UNCTAD & WTO etc in favour of corporate & against the people of India. 
In particular, the winning alliance representing majority of corporate will make tit-bit changes to benefit the majority section which forms Govt. But, people of India shall understand that these corporate agent parties can not deviate from agenda set by their master corporate & their Global organisation/s.” 

आइए देखे किस प्रकार देश कि दो बड़े दलों ने कैसे वैश्विक कम्पनिओ की नीति निर्धारक वैश्विक संस्थाओं के आदेश को कापी- पेस्ट करके अपने घोशनापत्र बनाये हे. 

काँग्रेस का दिनांक 26.03.2014 को जारी 2014 के चुनावों का घोशनापत्र में कहा गया हे:- 
1) 100 days agenda to reach high growth trajectory, 
2)avoiding retroactive taxation which deters foreign investment,
 3)$ 1 trillion investment in infrastructure, 
4)10 crore jobs through skill development,
 5)good & services tax and direct taxes code in one year. 

भाजपा का दिनांक 07.04.2014 को जारी घोशनापत्र कहता हे:-1) Infrastructure- 100 new cities enabled with technology & infrastructure, high speed rail & agri-rail network, 
2) reforms in investment, Banking reforms, fiscal discipline and policy framework that encourages foreign &domestic investment, 3) tax reforms –General sales tax & direct tax code, 
4)National multi skill mission, 
5) Single national agricultural market. Certain issues not included includes “disinvestment (read privatisation) commission.

हालाँकि इन घोशनापत्रो पर लोक लुभावन मुद्दों का मुल्लम्मा चढ़ा दिया गया हे. साथ ही दोनों दलों ने धार्मिक उन्माद को भड़काने के लिए "धर्म-निरपेक्षता" या "हिन्दुत्व" की मलाई लगा दी हे तो भी इन्होंने अपने मालिकों के प्रति अपनी वफादारी दिखा दी हे.

इस प्रकार यह तय हे कि जो भी सरकार बनाए वह् इन वैश्विक संस्थाओं द्वारा वैश्विक कम्पनिओ के पक्ष में बनाये गए मुद्दों पर ही कम करेगा. राजनितिक दलों के अतिरिक्त संचार माध्यम आौर चुनाव आयोग भी लोगो को चुनावों में बढ़ चढ़कर भागीदारी करने के लिए कहाँ रहे हे. जब इनसे भी काम बनता नही दिख रहा हे तो धार्मिक उन्माद, जातिवाद, प्रांतवाद आदि को फैलाकर लाशों के ऊपर अपनी राजनीति कर रहे हे.

मुख्य बात यह हे कि कम्पनिओ का विकास मानव विकास का विरोधी हे, यह जनता को घोर गरीबी, कुपोषण, भुकमरी में रखता हे. इसीलिये जरूरी हे कि कम्पनिओ के विकास के मुकाबले मानव विकास के मुद्दे को सामने लाया जाएँ. कम्पनिओ के मुनाफे बढ़ने कि जगह मानव की हालत सुधारने के मुद्दे को आगे लाया जाएँ. इसके लिए जनता का एक घोशनापत्र बनाया जाएँ आौर इन जनविरोधी नीतिओ के सामने रखा जाएँ. 

जनघोशनापत्र में निम्न मुद्दे शामिल किए जां सकते हे:- 
1) सभी को निशुल्क और समान शिक्षा, 
2) सभी को निशुल्क आौर समान चिकित्सा, 
3) शिक्षा के अमुरूप सबको रोजगार, 
4) सबको मुख्य आवश्यकताओं यानि रोटी, कपड़ा आौर मकान आदि, के आधार पर न्यूनतम वेतन/मजदूरी, 
5) एक तरफ़ उत्पादको आौर दूसरी तरफ़ उपभोक्ताओं की सहकारी समितिया बनाकर उनके बीच सीधा व्यापार, 
6) खेती आौर उद्योगों में सहकारी समितिया बनाकर खेती आौर उद्यौगो पर जनता का मालिकाना. 
7) मुनाफे के बजाए समाज की जरूरत को उद्देश्य बनाकर देश में उत्पादन की नीतियाँ बनाना. इनमें अन्य मुद्दे भी शामिल किए जां सकते हे

लेखक से सम्पर्क के लिये :

https://www.facebook.com/bhuvan.joshi.5203?hc_location=timeline

Tuesday, 26 November 2013

लम्पट सर्वहारा - गिरिजेश



प्रश्न : 'लम्पट सर्वहारा' क्या है ?
उत्तर : मैंने जितना मार्क्सवाद को पढ़ा और समझा है, उसके अनुसार किसी व्यक्ति में सर्वहारा वर्ग की पृष्ठभूमि होना एक चीज़ है और सर्वहारा वर्ग की चेतना होना दूसरी चीज़. दोनों ही चीज़ें एक ही व्यक्ति में हों - यह भी ज़रूरी नहीं है. 

सर्वहारा की वर्गीय चेतना से लैस व्यक्ति किसी भी वर्गीय पृष्ठभूमि का हो सकता है, वह अपने को डी-क्लास करके सर्वहारा वर्ग के संघर्ष का वर्गचेतन योद्धा बन सकता है. उसका मोर्चा कोई भी हो, उसकी उपयोगिता आन्दोलन के लिये महत्वपूर्ण होती है और उसका योगदान उसके लिये सम्मानप्रद होता है. इसके अगणित उदहारण राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में बिखरे पड़े हैं. 

वहीं सर्वहारा वर्ग में जन्म लेने वाले भी असंख्य लोग ऐसे हैं, जिनको किसी भी तरह से जल्दी से जल्दी ख़ुद अपने और अपने परिजनों के लिये सारी सुविधाएँ जुटा लेने की हाही मची रहती है. उनमें से कुछ पेशेवर अपराधियों के गिरोह में भर्ती होना चाहते हैं, कुछ तरह-तरह की झप्सटई करके अमीर बनने की कोशिश करते हैं, कुछ रंग-बिरंगी पार्टियों के नेताओं के छोटे-बड़े चमचे और थाने-कचहरी के दलाल बन जाते हैं, तो कुछ घूसखोर अधिकारी बनने के लिये रात-दिन एक किये रहते हैं. वे ख़ुद को बेचने के चक्कर में मौका ताड़ते रहते हैं. अपने लक्ष्य और दृष्टिकोण में वे पूरी तरह से पूँजीवादी होते हैं. और तय है कि उनकी प्रतिभा और क्षमता को प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप में खरीदने वाला वर्ग केवल सम्पत्ति ही नहीं, कुछ अक्ल भी रखता ही है. 

इनमें से कुछ तत्व क्रान्तिकारी आन्दोलन की कतारों में भी घुस जाते हैं. महान लेनिन द्वारा ऐसे तत्व ही क्रान्तिकारी आन्दोलन के 'भीतरघातिये' और 'उकसावेबाज़' कहे गये हैं. इनको ही 'लुम्पेन प्रोलेतारिया' कहा जाता है. ये क्रान्तिकारी होने का सफल अभिनय तो करते रहते हैं, परन्तु ये किसी भी तरह से प्रतिबद्ध क्रान्तिकारी नहीं होते. मूलतः ये केवल अवसरवादी होते हैं. मजदूर वर्ग के आन्दोलन को आगे बढ़ाने में इनकी कोई भूमिका नहीं होती. इसके उलटे ये मजदूर वर्ग के आन्दोलन के भीतर तरह-तरह से तोड़फोड़ करके शोषक वर्गों के निहित हितों को मूर्तमान करने में लगे रहते हैं. 

लम्पट सर्वहारा तत्व बार-बार तरह-तरह से षड्यन्त्र करते रहते हैं और आन्दोलन को नुकसान पहुँचाते रहते हैं. अपने सर्वहारा परिवार में जन्म लेने की वर्गीय पृष्ठभूमि के बावज़ूद अपने स्वार्थी चरित्र के चलते ये सत्ता और व्यवस्था पर काबिज़ जनशत्रुओं के जी-हुज़ूरिये और वेतनभोगी चाकर होते हैं. ये उन तक आन्दोलन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण और गोपनीय सूचनाएँ सही समय पर पहुँचाते रहते हैं. ये आन्दोलन के नेताओं को गिरफ्तार करवाने में या उनकी ह्त्या करने में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं. ये आन्दोलन को विपथगामी करने में भी आगे बढ़ कर अपनी सक्रियता प्रदर्शित करते हैं. दुश्मन से मिल सकने वाले पुरस्कार का लालच ही इनसे कुल्हाड़ी के पीछे लगी डेढ़ हाथ की लकड़ी की भूमिका अदा करवाता है और ये समूचा जंगल धराशायी करने वाले गद्दार बन जाते हैं.

शोषण पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था को बनाये रखने में अपनी सहायक भूमिका के चलते ये व्यवस्था के कार्य-पालिका, विधायिका, न्याय-पालिका और मीडिया के साथ पाँचवे खम्भे के रूप में काम करते हैं और इनको 'पंचमांगी' कहते हैं. ये आस्तीन के साँप केवल "घीसू-माधो" की तरह अमानुषीकरण के शिकार नहीं होते. इनके 'व्यक्तित्व का विखण्डन' नहीं हुआ रहता. ये सचेत गद्दार होते हैं. इनको अपने किये पर कोई अफ़सोस नहीं होता. उलटे अपनी मोटी खाल के चलते ये पूरी तरह से बेहयाई पर अमादा होते हैं. 

“जब वामपन्थी पार्टियाँ मशहूर हो जाती हैं और ख़ास कर जब सत्ता में स्थान बना लेती हैं, तब उन्हें भी, मजदूर और किसान आन्दोलन की तरह, सबसे बड़ा खतरा इन्ही लुम्पेन सर्वहारा से होता हैं. और वामपन्थी पार्टियों का ख़ात्मा ये ही करते हैं. सी.पी.आई. और सी.पी.एम. को इन्हीं से बचना चाहिए था. सोवियत यूनियन को भी इन्हीं ने ख़त्म कर डाला. असली वामपन्थी पीछे छूटते गये और अवसरवादी वामपन्थियों ने कहीं ज़्यादा ज़ोर से वामपन्थी नारे लगा कर आगे आते चले गये. सर्वहारा को वह वर्ग मान कर लिखा गया है, जिसके पास उत्पादन के साधन न हों. सत्तर साल की अवधि में सोवियत-संघ में सभी इसी कटेगरी में आ गये थे. उन मौकापरस्तों को बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर काबिज़ होते देखा है. जो दिल से वामपन्थी नहीं थे, पर इतनी ज़ोर से वामपन्थी नारे लगाते थे कि कई वामपन्थी फ़ीके नज़र आते थे और धीरे-धीरे नेपथ्य में विलीन हो जाते थे. वही हाल यहाँ भी हुआ.” – Reena Satin

केवल क्रान्तिकारी नेतृत्व की सक्रिय और सतर्क निगरानी ही ऐसे तत्वों की 'पर्जिंग' कर सकती है. 
(सौजन्य - साथी Tiwari Keshav )

प्रो. लालबहादुर वर्मा आज़मगढ़ डी.ए.वी.पी.जी.कॉलेज के छात्रों के बीच



प्रिय मित्र, विश्व-प्रसिद्ध इतिहासविद प्रो. लालबहादुर वर्मा की विद्वत्ता और बेबाकी विलक्षण रही है.
उनका लेखन विविध और विराट है.
उनकी वक्तृता-क्षमता हर उम्र के लोगों के दिलों को झकझोर सकने में समर्थ है.
वह अपने वैचारिक विरोधियों के भी सहज सम्मान के हकदार रहे हैं.
वर्मा जी की विचार-यात्रा आज तक विकासमान है.
उनका सन्देश है कि अपने को गम्भीरता से लें, साथ ही पर एवं प्रकृति के प्रति भी गम्भीर बनें.
उनके विचारों को आज़मगढ़ के युवाओं को भी सुनने का अवसर 14.11.13. को मिला.
इसका श्रेय उनके प्रिय शिष्य डी.ए.वी.पी.जी.कॉलेज के इतिहास-विभाग के डॉ.बद्रीनाथ को है.
सरल शब्द-चयन, सुबोध शैली और गहन विश्लेषण के धनी वर्मा जी से मैंने अलग-अलग शैली में लिखना सीखा है.
जनवाद के प्रबल समर्थक प्रो. वर्मा क्रान्तिकारी आन्दोलन में चार दशकों तक खूब सक्रिय रहे हैं.
आज भी तिहत्तर वर्षों की उम्र में उनकी सक्रियता हम सब के लिये प्रेरणा का स्रोत है.
कृपया आप भी उनके विचारों को सुनिए, गुनिए, लागू कीजिए.
और साथ ही उनसे बोलने की शैली भी सीखिए.
यह 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' द्वारा अपलोड की जाने वाली श्रृंखला का तेइसवाँ व्याख्यान है.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

http://www.youtube.com/watch?v=_sVgukJ7Cs0&feature=youtu.be

Sunday, 24 November 2013

मार्क्स, गाँधी और अम्बेदकर की क्षमता का महत्व – गिरिजेश



क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास का सवाल : 
प्रिय मित्र, महात्मा गाँधी का स्वयं को पीड़ा देकर आत्म-शुद्धि करने, बार-बार अनशन करने और शत्रु का हृदय-परिवर्तन करने का प्रयास करने का सिद्धान्त न तो उनके जीवन-काल में सफल हो सका और न ही अन्ना-आन्दोलन में अन्ना और उनके अनुयायियों द्वारा किये जाने वाले आमरण अनशन के रूप में राज-सत्ता के चरित्र पर कोई सकारात्मक प्रभाव डाल सका. गाँधी जी का भी उपनिवेशवादी सत्ता ने भरपूर सम्मान किया. परन्तु अन्ततोगत्वा हर बार लागू वही हुआ, जो अंग्रेज़ चाहते थे. वह कभी भी नहीं लागू हो सका, जो गाँधी जी अपनी विनम्रता और ईमानदारी के साथ चाहते रहे. अन्ना का भी देश की वर्तमान सत्ता ने ख़ूब सम्मान किया. मगर जब लागू करने का वक्त आया, तो वही लागू किया, जो अन्ना-आन्दोलन के हर तरह के हर बार के अनुरोध के विरुद्ध था और सत्ता और टीम-अन्ना के बीच के समझौते में नहीं था, बल्कि धूर्त सत्ताधारियों के निहित स्वार्थों के हित में था. 

स्पष्ट है कि गाँधीवाद के जनदिशा में किये जाने वाले तरह-तरह के प्रयोग आज़ादी की लड़ाई में भी और अन्ना-आन्दोलन में भी जन-जागरण के लिये तो उपयोगी हैं. वे विराट जन-आन्दोलन खड़ा करने में तो समर्थ हैं. परन्तु वे जन के हित में खड़ा हो चुके जनान्दोलन के परिणाम के तौर पर अन्तिम सकारात्मक और सफल निर्णय करने-कराने में हर-हमेशा विफल और असमर्थ रहे हैं. ऐसे में राष्ट्र-हित के प्रति प्रतिबद्ध युवाओं के मन में गाँधी और अन्ना दोनों के प्रति सम्मान तो भरपूर रहा है. किन्तु उनका गाँधी और अन्ना के पथ से मोह-भंग होना भी पूरी तरह से स्वाभाविक रहा. और वह मोह-भंग बार-बार हुआ भी. ख़ुद अरविन्द केजरीवाल को अन्ना का केवल जन-आन्दोलन का गाँधीवादी पथ छोड़ कर ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने और चुनाव लड़ने का निर्णय लेना पड़ा. और विवशता में स्वयं अन्ना को भी आज तक उनके विरुद्ध बार-बार अलग-अलग मुद्दों पर अपना वक्तव्य देते जाना पड़ रहा है. 

ऐसे में दिख रहा है कि वर्तमान जनविरोधी ‘वैश्विक गाँव’ में पूँजीवादी व्यवस्थाजनित हमारी सभी तरह की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-मानसिक समस्याओं का समाधान करने में केवल मार्क्स के वर्गीय सामाजिक विश्लेषण पर आधारित वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सिद्धान्त ही कारगर होने जा रहा है. क्योंकि हमारा समाज बना तो है परस्पर विरोधी हितों वाले विभिन्न वर्गों से ही. और वर्गीय समाज में हर वर्ग के सदस्य का अपने-अपने वर्गीय हित के अनुरूप ही चिन्तन और आचरण सम्भव है. और उसके अनुरूप ही उनके परस्पर स्वार्थों के टकराने पर होने वाले हर स्तर के संघर्ष में दोनों पक्षों द्वारा अपने कदम उठाने की अपेक्षा की जा सकती है. अभी तक का क्रन्तिकारी आन्दोलन मूलतः केवल सशस्त्र संग्राम का ही हिमायती रहा है. और कम से कम भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के पिछले चार दशकों की विफलता इस सार-संकलन के लिये पर्याप्त और साक्षी है कि केवल सशस्त्र संग्राम की कार्य-दिशा अभी तक सफल नहीं हो सकी है. और न ही निकट भविष्य में उसके सफल होने के कोई आसार ही दिख पा रहे हैं. क्योंकि वह अब तक भी आक्रामक नहीं, केवल आत्मरक्षात्मक युद्ध लड़ने के लिये बाध्य है. और महान माओ ने विश्व-क्रान्ति के योद्धाओं को सिखाया था कि केवल आक्रमण ही सबसे अच्छा सुरक्षात्मक कदम होता है. महान लेनिन ने क्रान्तिकारी आन्दोलन के उग्रवादी अतिवामपन्थी विचलन को “बचकाना मर्ज़” कहा था.

लेनिन ने इसके साथ ही पूँजीवादी संसद को “सूवर-बाड़ा” कहा था. क्रान्तिकारी आन्दोलन के चुनाववादी विचलन को उन्होंने दक्षिणपन्थी भटकाव बताया था. अरविन्द केजरीवाल जिस संसदीय सुधारवाद के पथ पर बढ़ने जा रहे हैं. उस पर चलने वाली इस देश की सी.पी.आई. और सी.पी.एम. जैसी संसदीय मार्क्सवादी पार्टियों के अनुभव हमें दशकों से साफ-साफ़ दिखा चुके हैं कि क्रान्ति का पथ छोड़ कर केवल चुनाव के चक्कर में लग जाने पर उनके भी नेताओं के साथ ही कार्यकर्ताओं के भी वैचारिक और सांगठनिक स्तर को अधोगति का शिकार होना पड़ा है. इस तरह पूँजीवादी जनतन्त्र में केवल संसद के गलियारों की परिक्रमा करने से भी बुनियादी सामाजिक परिवर्तन असम्भव है. क्योंकि लूट पर टिकी इस व्यवस्था में निहित स्वार्थों वाले वर्ग अपने पाले में आने वाले क्रान्तिकारी दलों को भी अपने जैसा ही बना डालते हैं. वे उनसे बार-बार तरह-तरह के समझौता और समर्पण करवाते रहते हैं. और वे लगातार ख़ुद भी इस भ्रम में रहते हैं और अपने ईमानदार कार्यकर्ताओं को भी इसी भ्रम में जिलाने का प्रयास करते रहते हैं कि वे जन के हित मंे सत्ता और व्यवस्था के सामने एक के बाद एक लगातार अपने ये समर्पणकारी कदम उठाते जा रहे हैं. ऐसे में संसदीय विचलन के रास्ते पर भी चल कर पूरी मेहनत और ईमानदारी से प्रयास करने से भी फैसलाकून क्रान्तिकारी समाधान की कल्पना भी आज तक हर तरह से केवल मृग-मरीचिका की मार्मिक त्रासदी ही सिद्ध हो चुकी है. जन-समस्याओं के समाधान की उससे भी तनिक भी उम्मीद पालना हमारा भोलापन ही कहा जायेगा.

इन दोनों विचारधाराओं के अलावा डॉ. अम्बेदकर का दलितवादी चिन्तन भी भारतीय समाज में सक्रिय एक महत्वपूर्ण धारा है, जिसने हमारे समाज के सबसे निचले और सबसे पिछड़े वर्गों के सबसे ग़रीब लोगों के स्वाभिमान के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. जब हमारे देश का कम्युनिस्ट आन्दोलन केवल चुनाव लड़ने और जीतने के दक्षिणपन्थी भटकाव के चक्कर में फँस कर अपनी सांगठनिक गतिविधियों को धीमा करने लगा, अपने अध्ययन-चक्रों को कम और ख़त्म करने लगा, तो वह अपने साथ जुड़े समाज के ग़रीब-गुरबा लोगों को वैचारिक स्तर पर बौद्धिक ख़ुराक देने में और आन्दोलनात्मक स्तर पर दलित बस्तियों में लोगों को जन-समस्याओं के समाधान के लिये सशक्त तरीके से जूझने के लिये सक्रिय बनाये रखने में पिछड़ने लगा. ऐसे में कम्युनिस्टों से धीरे-धीरे नाउम्मीद हो चुके उन सब लोगों को दलितवादी चिन्तन से भारी सहारा मिला. और फिर दलित बस्तियों से मजदूर-किसानों के लाल झण्डे उतरने लगे और उनकी जगह मायावती की बहुजन पार्टी के नीले झण्डों ने ले लिया. 

ख़ुद अम्बेदकर ने अपने जीवन में मूलतः केवल परम्परागत सामन्ती उत्पीड़न के विरुद्ध दलित स्वाभिमान को जगाने की कामना से अपने समूचे लेखन और सारे आन्दोलन - दोनों ही के स्तर पर पहल लिया था. उनका पूँजीवाद के वर्गीय शोषण का सक्रियता के साथ विरोध करने वाला रूप कभी भी उभर कर सामने नहीं आ सका. इसके विपरीत उन्होंने ‘पूना-पैक्ट’ में गाँधी के सामने आत्म-समर्पण किया और आज़ादी मिलने पर नेहरू के साथ सत्ता में भागीदारी किया. उन्होंने हमारे ‘धनतन्त्र का संविधान’ बनाने में अपनी सक्षम भूमिका का सचेत तौर पर निर्वाह किया. और इसका परिणाम हुआ कि उनका नाम लेकर मायावती जातिवाद की चुनावी शतरंज की बिसात पर सफल हो गयी और अन्ततोगत्वा विराट दलित वोट-बैंक के सहारे अपनी सरकार बनाने तक जा पहुँची और ‘ग़रीब की अमीर बेटी’ बन सकी. मगर ग़रीब आदमी की ग़रीबी की विभीषिका अभी भी वैसी की वैसी ही न केवल बनी हुई है, बल्कि और भी बढ़ती चली जा रही है. वह तो अम्बेदकर के भी रास्ते पर चलने से भी आज तक रंचमात्र भी दूर नहीं हो सकी. हाँ, पूँजी के शातिर खेल के चलते और भी अधिक सूक्ष्म और त्रासद होती चली जा रही है. 

इसके प्रभाव का विस्तार हुआ नवदलितवाद में. नवदलितवादी विचारकों ने श्रम और पूँजी के मूलभूत अन्तर्विरोध के बजाय ब्राह्मणवाद और दलितवाद के बीच के अन्तर्विरोध को भारतीय समाज का सबसे महत्वपूर्ण अन्तर्विरोध बताया. उन्होंने दलितों की समस्याओं के समाधान के लिये उनको वर्तमान वैश्विक सत्य की विभीषिका का साक्षात्कार कराने और उनको साम्राज्यवादी-पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध क्रान्तिकारी जन-संघर्षों के लिये तैयार करने की जगह की जगह ढह रही सामन्तवादी परम्पराओं के उत्पीड़न के विरुद्ध ही सचेत करते जाने का काम अभी भी अपना प्रमुख कार्य-भार बना रखा है. वे वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के घेरे के अन्दर ही सत्ता-प्रतिष्ठान में अपने लिये थोडा-सा और बेहतर स्थान बना लेने के लिये स्वयं भी प्रयासरत रहे हैं और इतने भर के लिये ही अपने अनुगामियों को भी प्रेरित करते रहते हैं. हाँ, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी तीख़ी नफ़रत के साथ ही प्रकारान्तर से वे क्रान्तिकारी विचारधारा पर भी पूरी धार के साथ हमलावर हैं. दलित कार्यकर्ताओं की एक कतार ने मार्क्स और अम्बेदकर के बीच से रास्ता निकालने के प्रयास में ‘जय भीम कामरेड’ का नारा दिया है. समन्वय के इस प्रयास को क्रान्तिकारी आन्दोलन में भी पर्याप्त सम्मान प्राप्त है और ग़रीब दलितों के बीच भी उनका अपना व्यापक प्रभाव है.

भारतीय समाज में मूलभूत परिवर्तन की कामना से समाधानकारी प्रयास में सक्रिय इन तीनों धाराओं के इस विश्लेषण का सार-संकलन करने पर यह पूरी तौर से स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन की नेतृत्वकारिणी टोली को मार्क्स की वर्गीय विश्लेषण की पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा गाँधी की जन-मन को छू सकने और विराट जन-उभार खड़ा कर सकने की क्षमता के साथ ही अम्बेदकर की ‘दलित जन के उत्थान की कामना’ को भी अपना हथियार बनाना होगा. तभी इस देश में जन-क्रान्ति की सफलता का सपना साकार हो सकेगा. न केवल भारतीय समाज के अन्दर परिवर्तन के लिये इन तीनों में से किसी को भी छोड़ कर किया जाने वाला कोई भी प्रयास विफल ही होता रहेगा, बल्कि इन तीनों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का कोई भी प्रयास क्रान्तिकारी जन-दिशा में आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों के लिये आत्मघाती होगा. जनपक्षधर शक्तियों की व्यापकतम एकजुटता के लिये सकारात्मक प्रयास करने वाले सभी साथियों की भी यह ही सबसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है. 

"शक्ति के विद्युत्-कण जो व्यस्त, 
विकल बिखरे हैं हो निरुपाय;
समन्वय उनका करे समस्त, 
विजयिनी मानवता हो जाये|"
इन्कलाब ज़िन्दाबाद !

Monday, 18 November 2013

—: PRO-PEOPLE SOLIDARITY FORUM :—


[AGAINST EXPLOITATION, OPPRESSION AND COMMUNAL HATRED]
Dear friend, Parallel media is the only platform left to raise genuine issues and disseminate the real fact and honest information to the people and express ourselves as true representative of Indian populace in view of electronic and print media being sold out to obscene greed of power, post and property under pressure of anti-people system and being reduced to propaganda machinery of ruling classes. Friends on facebook have achieved unprecedented success in raising public issues and awareness and in making their voice of protest emphatically and unitedly these days. The unity you showed in busting the fraud of Nirmal Baba, protest again Delhi Rape case and Arrest of Kanwal Bharti and its impact on establishment has lead me and other friends to conclude that facebook can be used as tool of protest even more effectively. But Facebook has a short memory, what is so prominent in morning turns trifle passing through evening. At times, we miss important piece of poetry, essay or an article by friends. Very few articles come to our notice when shared by friends. Then it is possible only those articles to be liked, shared or commented upon.

I feel there is a solution for this problem, if we create a blog named pro-people solidarity forum against exploitation, oppression and communal hatred. There will be links of compositions, articles, national and international news of importance and its analysis with scope for elaborate discussion. Thus a reference place in internet will be there, where one can paste the link of his/her article with an introductory paragraph while writing on his/her own wall or blog.

In an era of information explosion, this medium can allow us to share more and more information keeping in view paucity of time. It is even easy and convenient to use the link there as reference in future.

The friends, who are supposed to lead this move, are responsible. They may decide on themselves. Decision will be taken on basis of consensus or majority as the ease may be. Instead of making a particular person admin, the password will be passed on to group of friends to make it as democratic as far as practicable. It is my opinion to keep the password accessible to maximum possible friends to insure democratic nature of the forum and thus its main purpose will be solved. I feel that some more responsible friends should be included in the team. Too big or too small a team may be problematic. A handful of person may control the decisions if too small a team is made. In a large team while decision-making, we may fight individualism due to which pro-people solidarity has been evasive for decades. This will ensure that no post will be discriminated against by someone due to prejudice or malice. Also, no unwanted element will be able to intoxicate the milieu in this space.

Today, when fascism is knocking at door again, this is the most important task ordained by history on us to get united against conspiracy of shrewd ruling classes and consolidate our efforts for resistance against this along with pro-people friends in this hard time. The collective effort to solve the intricacies of complex social fabric of present is the task ordained by history on us. This duty should be discharged in collective unison. If we succeed in solidarity endeavour, we can strengthen further the voice of resistance. Therefore, it is my humble request to participate actively in this collective initiative to run forum duly and impart it impetus in right direction which is formed for solidarity to combat exploitation, oppression and communal hatred. I have a solemn hope that despite our wide differences on many issues, we will able to be united at these three fronts. I even hope that after success at this stage, ensuing time will transform this into our revolutionary unity.

Please think and take initiative to own responsibility as a responsible member of this revolutionary team. You have to take this responsibility among other daily juggernaut because we cannot leave this would as a culprit of history being ridiculed in eye of coming generations. We expect getting emboldened by your active participation and leadership in this enterprise. 

Please consider the proposal and if you see some fault in it, point out along with your suggestions and rectifications. If you agree on these issues, please discuss about this endeavor with your friends and inform me about the friends whose consent is obtained so that they could be included in this endeavor. I don’t want that any friend or companion should feel dejected and left out after so much of waiting, labor and time devoted to it and whole experiment meets a fiasco before its inception being victim of politics of conceit. Take your time and name someone using your own discretion. So that it can be started with help of all the friends.

Some senior friends want participation of maximum number of friends on national level. For this, it should be translated into regional languages and should be shared. If you or your friend can translate into any language please take initiative for its translation. Such sharing will help in its publicity and dissemination.

One step is taken already. Now this is embarked upon as a blog created by Ashok Kumar Pandey https://www.facebook.com/kalamghasit. Its link is http://ppsfin.blogspot.in/2013/09/blog-post_7.html. The co-ordination team members can post directly to the blog. Other friends are requested to send their posts to the blog through email at ppsfindia@gmail.com. This will be a bit inconvenient for you, but there is no way out, it seems to control unwanted posts. Link to email (ppsfindia@gmail.com) of this forum is given at right hand at blog icon for your convenience.

In coming days, we are going to have discussion of two days in a city or take further step in case of exigency. These meetings will make us come closer. Other friends active on facebook or outside facebook standing firmly on pro-people issues can also be invited. We shall try to inform you regarding our future plans and possible happenings, but you too are requested to click the link and visit the blog.
Till now, 340 friends have consented on the project and assured of their active participation.
I salute you with all my humility.
With thanks - Girijesh.

[Translated by Faqir Jay https://www.facebook.com/faqir.jay and edited.]